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Thursday, July 31, 2008

........मार सके ना कोय

इस बात के एक बार फिर पुख्ता सबूत मिल गए कि "जाको राखे साईंया , मार सके ना कोय"।
इस कहावत को सच का जामा पहनाया है २३ वर्षीय सुप्रतिम दत्ता ने । पिछ्ली १२ जुलाई को सुप्रतिम को मौत ने लगभग पूरी तरह अपनी जकड़ में ले ही लिया था , लेकिन यह कुदरत का करिश्मा कहिए या फिर ऊपर वाले की मर्जी और उस पर सुप्रतिम की हिम्मत तथा उसकी जीने की प्रबल चाह, कारण जो भी रहा हो किन्तु यह अटल सत्य है कि सुप्रतिम मौत के मुंह से बचकर बाहर आ गया है । सफल ऑपरेशन के बाद वह सही सलामत घर आ गया है ।
हालंकि डॉक्टरों ने उसे फिलहाल छह माह तक परी एहतियात बरतने की हिदायत दी है । ईश्वर से हमारी यही कामना है कि वह सुप्रतिम की जीवन रेखा खूब लबी करे और भविष्य में उसे किन्हीं तकलीफों का सामना न करना पडे़ ।
शीघ्रताशीघ्र स्वास्थ्यलाभ व दीर्घायु की कामनाएं ...

Tuesday, July 29, 2008

यह चित्र कल मेरे ई-मेल पर आया जो कि मुझे काफी अच्छा लगा । मुझे यह भी एह्सास हुआ कि यह दृश्य विहंगम होने के साथ - साथ अनुपलब्ध भी है और इसे अपने ब्लॉगर साथियों के साथ भी शेयर करना चाहिए । शायद आप लोग इस चित्र को पहचान भी पाए होंगे या नहीं तो मैं बता दूं कि यह चित्र नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन तथा संसद भवन का है । कृपया बताएं कि यह चित्र आपको कैसा लगा ?

Monday, July 28, 2008

सेव गर्ल


देखिये ये तस्वीर आपसे क्या कुछ नही कह रही इसकी मूक भाषा को समझो और अमल करो

Tuesday, July 15, 2008

औरत ही औरत की दुश्मन ?

अभी मैं अन्नू का ब्लॉग पढ़ रही थी , अन्नू की लिखी 'औरत के हक़ में ' पोस्ट पढ़ी , अच्छा लगा यहाँ मुझे भी कुछ कहने की उत्सुकता हुई सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि अगर आज कोई महिला घर से बाहर कदम निकालती हैया परिवार में रहते हुए अपने हक़ व् अधिकारों कि बात कराती है तो सबसे पहले उसे अपने घर के सदस्यों का सामना करना पढता है जिनमें न सिर्फ मर्द जात होती है बल्कि उनमें औरत जात भी शामिल होती है कहने का मतलब है कि समाज तो बाद की बात है पहले तो उसे अपने घर परिवार में मौजूद सास , ननद ,या माँ - बहन के कुटिल सवालों का डटकर मुकाबला करना पढता है इनसे निपटने के बाद आती है बारी समाज में बैठे अन्य पहरेदारों की सच मानिए तो प्राचीन समय में समाज के ठेकेदारों ने व्यवस्था ही कुछ ऐसी बना डाली कि एक औरत को समाज का सबसे कमजोर प्राणी मानकर उसे शुरू से ही अपने तथा पैरों तले दबाकर तथा पैरों की जूती मानकर घर कि चारदीवारी में कैद करके रखा शुरू से ही ऐसी परम्परा चली आई कि औरत को मात्र घर को सँभालने वाली व उपभोग कि वास्तु माना गया शायद यही वजह रही कि दबाव में रहते - रहते औरत स्वयम औरत जात कि ही दुश्मन बन बैठी अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों व जुल्म कुंठा को वह अपनी बेटी या बहु पर निकालती आ रही है और अब जबकि ज़माना बिल्कुल बदल गया है तो आज भी यह बदली तस्वीर पुरानी पीढी को नही भा रही है बदलते युग में महिलाओं कि स्थिति भी काफी बदली है , आज शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ महिलाओं की भागीदारी न हो । आज महिला पहले की तरह अबला नहीं रही , आज की सबला महिला अपने हक व अधिकारों के लिए लड़ना बखूबी जानती है । लेकिन ऐसा नहीं कि महिलाओं ने इस बदलाव की मंजिल को आसानी से पार कर लिया हो ? खैर वह मंजिल ही क्या जिसे आसानी से पा लिया जाय ।
अंतत: आज जमाना बराबरी का है यानी जो सुविधाएं व हक एक बेटे का है वही हक व सुविधाओं की दरकार एक बेटी को भी है । आज बेटा - बेटी के पालन - पोषण में किसी भी तरह का भेदभाव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा । और इस काम को करने के लिये एक महिला को ही हिम्मत से काम लेना होगा ।

Sunday, July 13, 2008

ड्राइविंग के वक्त बोलना नुकसानदेह होता है

हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार ड्राइविंग करते वक्त बात करना काफी नुकसानदेह हो सकता है । वैसे तो अगर ड्राइवर बातें सुन भी रहा है तो भी उसका ध्यान बंटता है , किंतु सुनने से ज्यादा बात करना ड्राइवर का ध्यान बंटाता है ।
द जनरल ऑफ एक्सपेरिमेंटल साइकलॉजीमें प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार १२ वयस्क ड्राइवरों, जिनका ड्राइविंग रिकार्ड अच्छा था, को चार घंटे तक हाईवे पर ड्राइविंग करवाई गई और इस बात पर ध्यान दिया गया कि वे ड्राइविंग के वक्त किस बात से प्रभावित होते हैं ? ड्राइविंग करते समय उन्हें तरह - तरह के संदेश सुनाए गए और फिर ड्राइवरों को इन संदेशों के बारे में बात करने को कहा गया । इस दौरान ध्यान दिया गया कि उनका ध्यान ड्राइविंग पर कित्ना केंद्रित रहता है । विशेषग्य अपने इस अध्ययन से इअस निष्कर्ष पर फुंचे कि सुनते वक्त उनकी ड्राइविंग पर खास फर्क नहीं पडा लेकिन बोल्ते वक्त उनका ध्यान ड्राइविंग से अधिक हटा ।
इसीलिए इस बात पर काफी जोर दिया जाता रहा है कि ड्राइविंग के वक्त ना तो आपस में किसी से बात करें और ना ही मोबाइल फोन का ड्राइविंग के वक्त प्रयोग करें । लेकिन देखने में आया है कि लाख कोशिशों के बावजूद , बार - बार चेतावनियां देने के बाद भी कई लोग ड्राइविंग के दौरान मोबाइल फोन का धड्ल्ले से प्रयोग करते हैं । जबकि उनकी यह आदत स्वयं उनके लिए व दूसरों के लिए भी जानलेवा साबित हो सकती है । काश लोग इस बात को समझ पाएं................

Saturday, July 12, 2008

नई सीट बेल्ट !

आरुषी मर्डर केस की गुत्थी सुलझी ?

सी बी आई ने अब तक की सबसे बडी मर्डर मिस्ट्री आरूषी हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने का दावा कर कांड के मुख्य आरोपी कृष्णा, राजकुमार व विजय मंडल को गिरफ्तार कर्के जेल भेज दिया है । इसके अलावा आरूषी के पिता डॉक्टर तलवार को ,उन्के खिलाफ कोई सबूत न मिल पाने की बिना पर ,क्लीन चिट दे दी और इसी बिनापर डॉक्टर तलवार को अदालत ने जमानत पर रिहा कर दिया है । अब भले ही डॉ. तलवार ने बेटी का कत्ल नहीं किया है मगर सीबीआई की कहानी हजम नहीं हो पा रही है । क्योंकि अभी तक कई एसे सवाल हैं जिनका जवाब अभी भी बाकी है ?
अगर सीबीआई की कहानी को माने तो बडे हैरानी होती है कि बगल के कमरे में डॉक्टर दम्पति सोते रहे और उन्हें घर में हो रहे तांडव की कानोकान खबर तक नहीं लगी ?
-घर में रह रहे नौकर हेमराज की इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि वह रात के समय घर में तीन दोस्तों को बुलाकर जाम से जाम टकराता है और डॉक्टर साहब को भनक तक नहीं लगती है ?
-पहले कहा जा रहा था कि डॉक्टर साहब सोने से पहले बेटी के कमरे का बाहर से ताला लगाकर ही सोते थे , फिर उस रात न तो कमरे में बाहर ताला था और न ही कमरे का अंदर से कुंडा लगाया गया था , आखिर क्यों ?
-सीबीआई के दावे में कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा है कि पूरा हत्याकांड प्री प्लान था या शराब पीकर तैश में उठाया गया कदम ?
-चलिए मान लिया कि हत्याकांड में तीनों आरोपियों का हाथ है ,अगर एसा है तो अभी तक हत्या में प्रयोग किए गए वेपन अभी तक बरामद क्यों नहीं किए जा सके हैं ?
-इस पूरे डबल मर्डर केस में डॉक्टर तलवार की चुप्पी किसी अन्य राज की और इशारा कर रही है ?
बहरहाल ,केस की गुत्थी को भले ही सुलझा हुआ मान लिया जाए लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद यह कहानी गले से नीचे नहीं उतर रही है ?

Tuesday, July 8, 2008

जब फेल ही नहीं होंगे तो पडाई कैसी?

Thursday, July 3, 2008

प्ले स्कूल : बच्चो के भविष्य को सुदॄड बनाने का सपना

बच्चे कल का भविष्य है और इसी बात को ध्यान मे रखते हुए हर माता - पिता का यही सपना होता है कि उनका बच्चा आने वाले समय मे देश का होनहार नागरिक बने तथा अपने माता - पित्ता का नाम रोशन करे । इसी हसरत को दिल मे लेकर हर मा - बाप की यही कोशिश होती है कि वह अपने बच्चे को अच्छे से अच्छे स्कूल मे तालीम दिलाए । समय की मान्ग को देखते हुए आज अच्छे से अच्छे स्कूलो की भी कोई कमी नही है । इसी दिशा मे पिछ्ले माह lakshya एजूकेशन सोसायटी ने बच्चो का एक प्ले स्कूल ब्रैट्स एन्ड क्यीटीज खोला है । इस स्कूल को खोलने का मकसद भी वही है कि आज के बच्चे केर कल को सवारना । अब यह कहना भविष्य के गर्त मे है कि स्कूल के सन्स्थापक अपने मकसद मे कितने कामयाब होन्गे ?
स्कूल के शुभारम्भ के अवसर पर सोसायटी के मुख्य देवेन खुल्लर ने दावा किया कि इस स्कूल मे बच्चो मे भारतीय सन्स्कॄतिऔर वैश्विक पटल पर उनकी उडान की तैयारी को ध्यान मे रखते हुए विश्व स्तरीय एजूकेशन देने की कोशिशे की गई है । उन्होने बतायाकि १६ महीने की कडी मेहनत के बाद उन्होने पाठ्यक्रम को १६ से १८ महीने के बच्चे के विकास के अनुसार बान्टा है । पूर्ण वातानुकूलित क्लासरूम मे खेल-खिलौने,जादू,कम्प्यूटर आदि की सुविधा भी बच्चो को दी जा रही है । साथ ही उन्होने यह भी बताया कि इस स्कूल को खोलने के पीछे मेरी प्रेरणा मेरी बेटी है । यह मेरी मा का सपना भी था कि मैअपने बच्चो को अन्य अभिभावको की तरह किसी बडे स्कूल मे न भेजकर खुद एक अच्छे स्कूल का निर्माण करू ।
बहरहाल , स्कूल के साथ् हमारी शुभकामनाए है किन्तु हम यह भी उम्मीद करते है कि स्कूल मैनेज्मेन्ट कही अपने उदेद्श्य से भटक न जाए और समय की रफ्तार के साथ वह भी औरो की तरह स्कूल को अपनी कमाई का जरिया ना बना बैठे ।