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Thursday, October 7, 2010

तातारपुर : ले आइये रावण के पुतले

   हर साल की तरह इस साल भी असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक रूप ’रावण दहन’ की तैयारियां जोर - शोर से चल रही हैं ।  कॉमन्वेल्थ गेम्स के चलते हर कोई इसी  कश्मकश में था कि रावण दहन हो सकेगा या नहीं , रामलीला मंचन का क्या स्वरूप रहेगा ? लेकिन आज असमंजस के सभी बादल छंट गये हैं । एक ओर समूचा देश कॉमन्वेल्थ गेम्स की बयार में बह रहा है वहीं रामलीलाओं का  मंचन भी अपनी पूरी भव्यता से चल रहा है । इन्हीं सब गतिविधियों के चलते हुए दिल्ली की एक छोटी सी बस्ती तातारपुर पूरी तरह रावण के रंग में रंग गई है । यहां रावण के पुतले बनाने वाले कामगारों ने अपने काम में तेजी ला दी है और वे दिन रात लगकर रावण के पुतले तैयार करने में जुट गए हैं ।
दिल्ली के राजागार्डन के पास स्थित तातारपुर बस्ती रावण के पुतलों की मंडी के नाम से मशहूर है । दिन - प्रतिदिन बढ़ती रामलीलाओं की संख्याओं के चलते पिछले पचास वर्षों से चला आ रहा यह व्यवसाय आज खूब फल - फूल रहा है । कभी एक व्यक्ति द्वारा शुरू किए गए इस व्यवसाय मे दर्जनों लोग लग गए हैं यही वजह है कि इस क्षेत्र ने मंडी का रूप ले  लिया है ।
तातारपुर मंडी दिल्ली में ही नहीं बल्कि देशभर में ऎकमात्र ऎसी मंडी है जहां हर साल सैकड़ों की संख्या में रावण के पुतले तैयार होते हैं । ये पुतले दिल्ली व देश के विभिन्न राज्यों तथा क्षेत्रों के अलावा विदेशी धरती पर भी अपनी धूम मचाते हैं । यहां रावण के अलावा मेघनाद तथा कुंभकर्ण के भी पुतले बड़ी मात्रा में तैयार किए जाते हैं । इस क्षेत्र में नजर डालने पर ऎसा लगता है मानो हां रावण परिवार का मेला लगा हुआ हो । पुतले बनाने में मशगूल एक दुकानदार महेन्द्रपाल ने बताया कि वे दस फुट से लेकर चालीस - पचास फुट तक के पुतले तैयार करते हैं ।आमतौर पर वे दस से बीस फीट तक के पुतले तैयार करते हैं जबकि तीस से  पचास फीट के पुतले आर्डर पर ही तैयार करते हैं । क्योंकि इनमें लागत ज्यादा आती है तथा इनके गिरने का खतरा भी बना रहता है । राजेन्द्र बताते हैं कि पुतले बनाने का काम काफी जोखिम भरा भी है , क्योंकि यह जरूरी नहीं कि हमने जितने पुतले तैयार किए हैं वे सभी बिक जाएं । कभी - कभी तो सारे निकल जाते हैं और ग्राहकों कि डिमांड पूरी नहीं हो पाती है । कभी जो तैयार हैं वे भी नहीं निकल पाते । जिसका हर्जाना पुतला बनाने वाले को ही भुगतना पड़ता है । ये चीज ऎसी नहीं है कि नहीं बिक सकी है तो बाद में काम आ जाएगी । दशहरे के बाद इन पुतलों को पूछने वाला कोई नहीं होता । इसलिए वे बहुत ही डर - डर के पुतले तैयार करते हैं  ।
राजेन्द्र ने बताया कि इस बार तो स्थिति काफी विकट थी क्योंकि कॉमनवेल्थ गेम्स के कारण वे लोग यह तय नहीं कर पा रहे थे कि पुतले बनाए या नहीं और यदि बनाएं तो कितने  ? लेकिन हालात अच्छे ही नजर आ रहे हैं । उन्हें उम्मीद है कि संभवत: विदेशी मेहमान यदि इस इलाके में आये तो उनका धंधा और अधिक चमक सकता है ।राजेन्द्र ने बताया कि  पुतले बनाने की प्रक्रिया दशहरे से लगभग ढाई माह पहले ही शुरू हो जाती है । सबसे पहले बांस काटकर उसकी खपच्चियों से ढांचे टुकड़ों में बनाए जाते हैं , जो सबसे कठिन काम है । पुतलों की स्वाभाविकता इन्हीं ढांचों पर टिकी होती है । बाद में ढांचे पर कपड़ा व रद्दी कागज चिपकाया जाता है । रद्दी कागज पर एक बार फिर सफेद कागज चिपकाया जाता है । फिर उसे विभिन्न रंगों से सजाकर व चित्रकारी करके मूर्तरूप देते हैं । दशहरे के दिन दहन से पूर्व ग्राहकों की इच्छा के अनुसार उसमें आतिशबाजी डाली जाती है ।
उल्लेखनीय है कि यह धंधा साल में सिर्फ तीन माह ही चलता है ।शेष महीनों में ये लोग दूसरे धंधों में लग जाते हैं । एक दुकानदार नाथूराम नौकरी पेशा हैं किंतु पुश्तैनी धंधे को जीवित  रखने की खातिर वे तीन महीने की छुट्टी ले लेते हैं और उसे चलाते रहना अपना फर्ज मानते हैं ।
बहरहाल इस समय तातारपुर क्षेत्र में पुतले बनाने में जुटे दर्जनों कारीगर रात दिन की मेहनत करके रावण , मेघनाद व कुंभकर्ण के पुतलों को अंतिम रूप देकर सजीव बनाने में लगे हैं ।
आपको भी अगर अपने इलाके में बच्चों के साथ मिलकर रावण दहन करने का शौक है तो जल्दी कीजिए और अपनी पसंद व जेब का ख्याल रखते हुए रावण का पुतला ले आइए कहीं ऎसा न हो कि सभी पुतले बिक जाएं । तो जाइए अन्यथा ”देर ना हो जाए कहीं देर ना हो जाए.........