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Friday, May 29, 2020



लघुकथा .........

                              बेवसी

                
                      --- डॉ शशि सिंघल --
  
     नैना आज बहुत गुस्से में थी । एक निवाला तो दूर एक घूँट पानी भी उसके गले से नीचे नहीं उतर रहा था । वजह  हर बार  की तरह माँ की वही बेवसी , लाचारी और मजबूरी भरी मनुहार । 
     बेटी नैना , “घर के हालात तुमसे छिपे नहीं है । तुम्हारे पापा का काम बंद है । तनाव के कारण उनकी तबियत भी ठीक नहीं रहती । कुछ कामधाम है नहीं , ऊपर से डॉक्टरों के यहाँ के चक्कर और दवाईयों में दुनियाभर का पैसा खर्च हो जाता है ।  घर में खाने के लाले पड़े हैं । उधर रिया की डॉक्टरी की पढ़ाई का खर्चा भी कोई कम नही है। कहाँ से लाऊँ , क्या करूँ ? अब तो बर्तन - भांडे भी नहीं रहे जिन्हें बेचकर घर का गुजारा हो सके ।" एक ही साँस में माँ इतना कुछ कह गयी ।

      नैना समझ गयी माँ की इस बदहवासी का कारण । जरूर रिया की चिट्ठी आई होगी और उसने की होगी पैसे की डिमांड । इतनी परेशान क्यों हो माँ  (सबकुछ जानते हुए भी )रिया ने पूछा ?
       वोsssवोsss रिया ..मैंने तुमसे वादा किया था कि इस बार बुनाई के आने वाले रुपयों में से तुम्हारी फीस के लिए दे दूँगी , लेकिन इस बार तुम्हारी फीस भरपाना संभव नहीं हो पा रहा है। वो मैं कह रही थी कि तुम अब से एक घंटा और ज्यादा बुनाई का काम कर लो तो सच कहती हूं ,उससे आने वाले पैसों से अवश्य ही तुम्हारी फीस भर दूँगी ।
      माँ के ये शब्द नैना को गहरे तक चुभ गये । ऐसा नहीं पहले नहीं चुभे लेकिन पहले माँ की मजबूरी मानकर चुप रह जाती और पहले से ज्यादा मेहनत करने लग जाती थी। खैर कोई प्रत्युत्तर दिए नैना वहाँ से चली गयी । 
     माँ पढ़ी - लिखी नहीं थी मगर वह अपने बच्चों को पढ़ा - लिखाकर कामयाब इंसान बनते देखना चाहती थी । यही वजह है कि तमाम मुश्किलों के बाद भी माँ ने अपनी बड़ी बिटिया रिया को मेडीकल की पढ़ाई करवाई । माँ ऐसा सोचती थी कि घर में बड़ा बच्चा पढ़ लिख जाएगा तो उसके पीछे - पीछे दूसरे बच्चे भी लायक बन जाएंगे । अपनी इसी सोच के चलते माँ ने अपना सारा ध्यान रिया पर केंद्रित कर दिया था । 

        घर में पैसे की तंगी से जूझने के लिए माँ स्वेटर बुनने की मशीन ले आई थी । नैना ने घर में रहकर काम करने में माँ का पूरा हाथ बंटाया । नैना मशीन से स्वेटर बनाती और माँ दुकानदार से माल व रुपयों का लेन - देन करती थी । 
      इधर धीरे - धीरे नैना ने पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया । अब उसे पीएचडी में रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए फीस जमा करवानी थी । इसके लिए उसने जब अपनी इच्छा माँ के सामने जाहिर की तब माँ ने ही तरकीब सुझाई थी कि अगर वह प्रतिदिन दस स्वेटर बनाती है तो उसकी जगह बारह स्वेटर बनाने शुरू कर दे । मतलब प्रतिदिन वह रोजाना से एक घंटा ज्यादा काम कर ले तो इससे आने वाले अतिरिक्त  रुपयों से उसकी फीस आसानी से जमा हो जाएगी । 
   परिस्थितिवश नैना ने माँ का सुझाव मान‌ लिया । पीएचडी करने की ललक में जी - तोड़ मेहनत करने लगी । मगर नतीजा वही “ढाक के तीन पात " रहा । 
     क्योंकि जब भी मेहनताना आता तभी माँ के सामने रिया का कोई ना कोई खर्चा खड़ा हो जाता । इसका हर्जाना भुगतना पड़ता नैना को जिसके लिए उसकी फीस अगले टाइम के लिए टाल दी जाती । ये सिलसिला पिछले तीन माह से चल रहा था ।
     जो नहीं होना चाहिए था एक बार फिर वही हुआ । आज भी माँ अपनी मजबूरी का रोना लेकर बैठ गयी । 
   लेकिन आज नैना कुछ भी सुनने - समझने को तैयार ना थी । उसे रह रह कर एक ही बात परेशान कर रही थी कि माँ को रिया ही रिया दिखती है मैं क्यों नहीं ? आखिर ऐसा क्या है रिया में ? मैं भी तो उन्हीं की बेटी हूँ फिर मुझसे प्यार क्यूँ नहीं ? आखिर माँ मेरे जज्बात क्यूँ नहीं समझती ? 
  वक्त , हालात और मजबूरी के आगे बेवस नैना माँ का विरोध तो नहीं कर पाई । बस गुस्से से आग बबूला हो पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गयी । अब आगे वह क्या करे क्या ना करे यही सब सोचती रही और घंटों अपनी बेवसी पर आँसू बहाती रही 



डॉ. शशि सिंघल 
C 5 /256 , सैक्टर --6
रोहिणी , 
नयी दिल्ली - 110085 
मोबाइल नं. -- 9899665007
ई मेल -- drshashisinghal@ yahoo.com

Tuesday, August 8, 2017

आत्मविश्वास बढ़ाए काउंसलिंगशशि सिंघ

शशि सिंघल
आज सुनिधि काफी तनावमुक्त लग रही थी। उसने बताया कि स्कूल में नियुक्त एजूकेशनल काउंसलर की मदद से उसके बेटे अमन का उग्र होता व्यवहार अब शांत हो रहा है। काउंसलर यानि परामर्शदाता ने तीन-चार सिटिंग में इस समस्या को सुलझा दिया। जबकि वह स्वयं बेटे के व्यवहार के सामने हथियार डाल चुकी थी। वहीं पिछले छह माह से पारिवारिक कलह के कारण अलग रह रहे अंशुला और विकास अब एक साथ रहने लगे हैं। कारण, काउंसलर की मदद और सलाह से उन दोनों के बीच जो भी गलतफहमियां थीं, दूर हो गई हैं।  काउंसलर ने पर्सनल रिलेशनशिप सुधारने के कई मंत्र भी उन्हें दिए हैं।
क्या है काउंसलिंग ?
काउंसलिंग अर्थात परामर्श, यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत काउंसलर (परामर्शदाता) किसी भी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत समस्याओं एवं कठिनाइयों को दूर करने की सलाह, सहायता तथा मार्गदर्शन देता है। जिंदगी जीने की ललक जगाता है। काउंसलर की मदद से व्यक्ति अपनी समस्याएं पहचानने, उन्हें दूर करने से जुड़े निर्णय लेने तथा स्वयं आत्मविश्वासी बनने में सक्षम हो जाता है। आज के दौर में निर्देशन (गाइडेंस) के तहत परामर्श एक आयोजित विशिष्ट सेवा के साथ-साथ सहयोगी प्रक्रिया बन गई है।
परामर्श के दौरान परामर्शदाता सलाह या सुझाव ही नहीं देते बल्कि संबंधित व्यक्ति के लिए एक दर्पण के समान कार्य करते हैं। काउंसलर इंटरव्यू तथा प्रेक्षण के जरिये सेवार्थी के पास जाता है और उसे उसकी शक्ति और सीमाओं का अहसास कराता है। उसमें आत्मविश्वास जगाता है।
काउंसलिंग एक प्रक्रिया 
व्यावसायिक निर्देशन के क्षेत्र में प्रमुख योगदान देने वाले प्रख्यात लेखक ई.डब्ल्यू.  मायस ने कहा है कि परामर्श देना महान कला है। पुराने वक्त का परामर्शदाता चौपाल में बैठा, दूर एक परिपक्व सामाजिक प्राणी था। जो समय व परिस्थिति के चलते ही अपने अनुभवों से दूसरों को ज्ञान देता था। लेकिन बदलते समय के साथ-साथ चौपालें बदल गईं और चौपालों पर बैठा वह परिपक्व इंसान भी। इसके साथ ही सलाह व परामर्श का स्वरूप भी बदल गया।
कौन होता है काउंसलर?
अपने क्षेत्र में प्रशिक्षित व्यक्ति होता है काउंसलर। जिसे लोगों की मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, वित्तीय तथा आध्यात्मिक जैसी समस्याओं तथा आवश्यकताओं का पूरा ज्ञान होता है।
अच्छे काउंसलर के गुण
एक अच्छे काउंसलर का काम है आपकी रुचि को समझाना और आपकी प्रतिभा को जानकर बढ़ावा देना। आप में आत्मविश्वास को बढ़ावा देना। समस्या की जड़ तक जाने के लिए आपको पूर्ण रूप से जानने के लिए आपसे व्यक्तिगत सवाल रहेगा। आपके परिवार स्कूल, कॉलेज, दोस्त, पड़ोसी से जुड़ी हर बात को जानेगा।  काउंसलर आपकी रुचि को जानकर सलाह देते हैं कि किस प्रकार की नौकरी करनी चाहिए। उनका काम आपके भविष्य को संवारना ही नहीं बल्कि मानसिक तौर पर भी मदद करना है।
डिमांड में है काउंसलिंग
आज आधुनिकता की ओर बढ़ते कदम, भागदौड़ से भरी जिंदगी तथा तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में काउंसलिंग की परम्परा ने अपने पैर पसार लिए हैं। हालात यह है कि व्यक्ति की निजी हो या बाहरी समस्याएं इनके समाधान के लिए वह काउंसलर का दामन थामने से नहीं हिचकता। मसलन लोगों के समक्ष पहले की अपेक्षा अपने जीवन को सुचारू ढंग से जीने के लिए जितनी व्यापक संभावनाएं व विकल्प हैं, उससे कहीं ज्यादा विकट व असमंजस वाली स्थितियां भी हैं। ऐसे में लोगों की दिनचर्या प्रभावित हो रही है जिसका उनके जीवन पर खराब प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में उन्हें एक एक्सपर्ट की आवश्यकता पड़ रही है। जिससे काउंसलिंग की डिमांड बढ़ गई है। विशेष बात यह है कि इस चलन के चलते काउंसलिंग का क्षेत्र भी बढ़ रहा है।

Sunday, January 15, 2017

याद हॆ मुझे तुमने कहा था कि .... दर्द हो जब बेइन्तहा, आंखों से अश्क बहने लगें तब याद कर लिया करो ... मेरे प्यार को मेरी बातों को ....

Thursday, June 25, 2015

तुम मेरे क्या हो......

जिसने मेरे हर दुख दर्द को साझा किया वो सिर्फ तुम हो ....
जिसने मुझे हर छोटी से छोटी खुशी दी हॆ वो सिर्फ तुम हो ...
तुम मेरे गीत हो , तुम ही मेरे अकेलेपन के साथी हो ..
कॆसे बखान करूं कि तुम मेरे क्या हो,
ये समझ लो तुममें मॆने हर रूप को देखा हॆ .....
तुम तो मेरे लिए खुदा की किसी रहमत से कम नहीं...
तो कहो, तुम्हें ऒर क्या दूं मॆं इसके सिवाय कि तुमको मेरी उमर लग जाए ....

Thursday, January 1, 2015

Namaskaar ! Good Morning Friends ! Happy New Year 2015 !

Wednesday, June 18, 2014

फ़ैसला

चलो एक फ़ैसला कर लेते हैं ...
आज इस दुनिया को बांट लेते हैं.....
मैं और तुम एक हो जाते हैं ....
बाकी सब दुनियावालों पे छोड़ देते हैं .......

Saturday, June 14, 2014

महिला आरक्षण विधेयक पर लगी नजरें .......

16 वीं लोकसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित जीत एवम प्रचण्ड बहुमत हासिल कर भाजपा एवं राजद के नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानमंत्री का पदभार संभाल लिया है । मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही देश - दुनिया की नजरें उन पर टिक गई हैं । जनता की अपेक्षाएं भी बेइंतहा बढ़ गई हैं । इससे अपार जनसमर्थन प्राप्त मोदी सरकार के समक्ष देश की बागडोर संभालते ही चुनौतियों के पहाड़ खडे़ हो गये हैं । जगजाहिर है कि आज देश विभिन्न समस्याओं रूपी ज्वालामुखी के ढेर पर बैठा है , हालात बेकाबू हो गये हैं । जिनसे जुझने के लिये मोदी सरकार को अपनी सूझबूझ की रणनीति से ठोस कदम उठाने होंगे ।
यूं तो चुनावों के दौरान सभी  राजनीतिक दलों ने  अपने - अपने चुनावी घोषणा पत्र में तमाम वायदे किये थे । भाजपा एवं राजद के नेतृत्व वाली मोदी  सरकार ने भी तमाम वादे किये हैं , उनमें से यहां हम बात करेंगे महिलाओं से जुडे़ वादों की -----
भाजपा ने अपने पत्र में महिलाओं की सुरक्षा और कल्याण के साथ - साथ संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का कानून बनाए जाने पर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है । अब देखना यह है कि जिस महिला आरक्षण बिल [ नारी सशक्तीकरण का प्रतीक ] को पारित कर अमल में लाने का प्रयास पिछले 17  सालों से चल रहा है , पिछली यूपीए सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद किन्हीं राजनीतिक दलों के विरोध और दांवपेचों के चलते लोकसभा में पारित नहीं कर पाई ,उसे मोदी सरकार कितने समय में पारित करवा पायेगी ।ऎसा करके वह महिलाओं कि उम्मीदों पर खरा उतर पायेगी या नहीं ।
क्या है महिला आरक्षण विधेयक -----
आजादी के बाद महिलाओं की बेहतरी और सत्ता में उन्हें हिस्सा देने की गरज से पिछले 18 वर्षों से संविधान के 108 वें महिला सशोधन विधेयक को लाने का प्रयास किया गया है। इस बिल के लागू होने से भारतीय राजनीति पटल का दृश्य ही बदल जायेगा क्योंकि इसके तहत भारतीय संसद में महिलाओं की भागीदारी 33 प्रतिशत आरक्षित हो जायेगी । फ़लस्वरूप भारतीय संसद में 248 और राज्य विधानसभाओं में 1223  महिलाएं आ जाएंगी , जिससे पुरुषों का वर्चस्व खत्म हो जायेगा । 543  सदस्यों वाली लोक्सभा में अभी तक महिला सांसदों की संख्या 61 से ऊपर नहीं पहुंची है तो राज्य विधानसभाओं में भी हालात कुछ अच्छे नहीं , यहां भी 4072 विधानसभाओं में महिला सदस्यों का आंकडा़ 300 तक ही पहुंच पाया है । जाहिर है इस बिल के आने से पुरुषों की संख्या सीमित हो जायेगी और महिलाओं की संख्या बढ़ जायेगी ।
देश की पहली लोकसभा में महिला सांसदों का प्रतिशत महज चार फ़ीसदी थी और आज भी यह आंकडा़ कुछ खास आगे नहीं बढा़ है । हाल ही में गठित 16वीं लोकसभा में भी मात्र 61 महिलाएं [अब तक की सबसे ज्यादा संख्या ] चुनकर आई  हैं जो  मात्र 11 फ़ीसदी ही हैं । अत: यह तय है कि इस विधेयक के लागू होने से भारतीय संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ने से कोई नहीं रोक पायेगा ।
संसदीय व्यवस्था में महिलाएं----
देखा जाए तो भारत ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महिलाओं की स्थिति अच्छी  नहीं है । विश्व की आधी आबादी होने के बावजूद समूची संसदीय प्रणाली में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ़ 18.4 ही फ़ीसदी है । जबकि दुनिया में संसदीय प्रणाली वाले देशों की संख्या 187  है । इनमें से केवल 63  में द्विसदनीय व्यवस्था है , इनमें से भी महज 32 देशों में ही महिलाओं को वहां की संसद या उसके किसी सदन का अध्यक्ष बनने का अधिकार मिल सका है । इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के मुताबिक 30 अप्रैल 2009 तक के आंकडो़ के अनुसार संसदीय व्यवस्था वाले देशों में सांसदों की कुल संख्या 44 हजार 113 थी ,इनमें महिला सांसदों की संख्या महज 8 हजार 112 थी । कुलमिलाकर देखा जाए तो महिलाओं की दयनीय तस्वीर ही सामने आती है । दुनिया की एक चौथाई संसदों में तो महिलाओं की संख्या नगण्य है । सऊदी अरब में तो महिलाओं को वोट डालने का भी अधिकार नहीं है ।
लोकतंत्र के सबसे बडे़ पैरोकार और मानवाधिकारों का ठेकेदार बनने वाले अमेरिका में कांग्रेस के दोनों सदनों - सीनेट और प्रतिनिधि सभा में सर्वाधिक 17.17 महिला सांसद ही चुनी गई । संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत दुनिया में 134वें स्थान पर है।
देश मे आधी आबादी (महिलाएं) पिछले एक दशक से अपना प्रतिनिधित्व बढाने की मांग कर रही हैं लेकिन पुरूष प्रधान राजनीति संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होने दे रही। अधिकांश पुरूष सांसद महिला सशक्तिकरण की बात जरूर करते हैं, पर समाज की "आधी आबादी" के लिए त्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में अंतर दिखता है।
महिला आरक्षण की आवश्यकता ------
महिलाओं के उत्थान के लिए यह विधेयक आवश्यक है। लेकिन इसमें भी संशय है कि यह सिर्फ आम बिल बनकर रह जाए या महिलाओं को हक दिलाने में कारगर भी होगा।फ़िर भी  इस बिल के पेश होने के बाद उम्मीद है कि महिलाएं  आत्मविश्वास के साथ अपने हक की मांग करें। अपने अधिकारों को कानूनी रूप से प्राप्त करने के लिए वे स्वयं आगे आएं। कितने आश्चर्य की बात है कि इतने चुनावों के बाद भी महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नगण्य है ।
स्त्री जब भी अपने अधिकार के लिए आगे आती है, तो उसे वह स्थान नहीं मिलता। वह चाहे राजनीतिक पार्टियों के टिकटों के बंटवारे का मामला हो या फिर नौकरी में आरक्षण का। किसी महिला को महत्वपूर्ण जगह मिल भी गई, तो उसे पुरुषवादी मानसिकता का चतुर्दिक सामना करना पड़ता है। उसे उसी पद्धति के भीतर रहना पड़ता है। वह अपनी आवाज उठाती है, तो उसे महत्वपर्ण जगह से हटा दिया जाता है। किरण बेदी के साथ भी तो यही हुआ। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक समाज के नजरिये में फर्क नहीं आएगा। समाज का मौजूदा नजरिया तो स्त्रियों को बर्दाश्त न करने वाला है।  समाज की मानसिकता बदलने की जरूरत है। समाज को बदलने की पहल भी महिलाओं को ही करनी होगी। महिलाओं को शिक्षित होना पड़ेगा।
कानून हमारे यहां हैं, लेकिन उनकी परिणति क्या होती है? बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की एफआईआर तक को प्राथमिकता नहीं दी जाती। सच कहें, तो स्त्री को अधिकार मिलने में कानून, कागज और कार्रवाई के बीच बड़े अंतराल हैं। इन अंतरालों को हमें पाटना पड़ेगा। कोई कानून तभी प्रभावी होता है, जब सदिच्छा से उसे लागू किया जाए।
लबे समय से बहस में अटका है ये बिल -------
इस बात का खेद है कि पुरुष दोहरी मानसिकता के शिकार आज भी हैं । जिसके कारण महिलाओं के लिये विधायिका में 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने का मुद्दा महज ख्यालों में ही अटक गया है । विभिन्न राजनीतिक दलों में ही इसे लेकर जबर्दस्त अंतर्विरोध है । इसके समर्थन और विरोध में अलग - अलग तर्क हैं । समर्थकों का मानना है कि विधायिका में महिलाओं का आरक्षण होने से देश की राजनीति में महिलाओं की संख्या बढे़गी तथा सामाजिक समर्थन का सपना भी साकार हो जायेगा । जबकि विरोधियों का मानना है कि इसके स्वरूप से सिर्फ़ उच्च वर्ग की महिलाओं को ही फ़ायदा पहुंचेगा । इसलिये ये लोग आरक्षण के भीतर अलग कोटे की मांग कर रहे हैं । जदयू अध्यक्ष शरद यादव , समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव आरक्षण के मौजूदा स्वरूप के हक में नहीं हैं । यही नहीं वर्तमान में भाजपा से सांसद चुनकर आई उमा भारतीभी आरक्षण के इस स्वरूप के विरोध में थीं , अब उनका रुख क्या होगा यह देखना महत्पूर्ण है ।
यह बिल, जो कि देश के चौथे प्रधानमंत्री राजीव गांधी का स्वप्न था , संसद में पहली बार 12 सितंबर 1996  को एच डी देवगौडा़ सरकार के समय लोकसभा में पेश किया गया । लेकिन उस वक्त भी इसके पक्ष - विपक्ष में बेहद शोर - शराबा हुआ और विधेयक अधर में लटक गया । इसके बाद अटल बिहारी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन [ एनडीए ] सरकार द्वारा 1998  में दोबारा पेश किया गया लेकिन 12 वीं लोकसभा के भंग होने से यह बिल फ़िर अटक गया । राजनैतिक दलों में आम सहमति न होने के कारण 23दिसंबर 1999 को तीसरी बार पेश किया गया यह बिल फ़िर पारित न हो सका । बार - बार पटरी से उतरता हुआ यह बिल किसी टेडी़ खीर से कम नहीं लगने लगा ।  तत्पश्चात डा. मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन [ यूपीए ] सरकार जब 2004  में सत्ता में आई तो उसने इस विधेयक को न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा बनाया और 2008 में यह विधेयक प्रस्तुत किया । लेकिन इस बार भी आरक्षण को लेकर राजनीतिक खेल खेले ।
ऎतिहासिक फैसला ---------
आखिरकार 14  साल की लम्बी जद्दोजहद के बाद आरक्षण बिल मार्च 2010 में राज्यसभा में लाया गया और भारी मतभेदों व ना - नुकुर के चलते यह पास हो गया । इस तरह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जुड़ गया और महिलाओं के हक में एक नई क्रांति की शुरुआत हुई।

विधेयक के रास्ते में बाधाएं --------
केंद्र सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पास करवाकर अवश्य ही अपने इरादे जता दिये हैं । सरकार की इस जीत के लिये सत्ता के साथ साथ विपक्षी दल भी बराबर के हकदार है ।किंतु आम सहमति ना बन पाने के कारण सरकार इसे लोकसभा के पटल पर नहीं रख पाई ।
वर्तमान राजनीतिक समीकरण में रोचक तथ्य यह है कि संप्रग के समर्थन में राजग प्रमुख भाजपा अपना समर्थन लिए खड़ी है। वामदल भी आरक्षण विधेयक के समर्थक हैं। राजद, द्रमुक, पीएमके दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहता है। सपा भी कोटे में कोटे की पक्षधर है। इस विधेयक के रास्ते में कई तकनीकी परेशानियाँ हैं क्योंकि यह संविधान में संशोधन करने वाला विधेयक है. ग्यारहवीं लोकसभा में पहली बार विधेयक पेश हुआ था तो उस समय उसकी प्रतियां फाड़ी गई थीं. इसके बाद 13वीं लोकसभा में भी तीन बार विधेयक पेश करने का प्रयास हुआ, लेकिन हर बार हंगामे और विरोध के कारण ये पेश नहीं हो सका था. महिला आरक्षण विधेयक एक संविधान संशोधन विधेयक है और इसलिए इसे दो तिहाई बहुमत से पारित किया जाना ज़रूरी है.
नई गठित मोदी सरकार पर उम्मीदें टिकीं --------
नरेन्द्र मोदी  की छवि एक आक्रामक नेता के रूप में रही है । हरेक नागरिक की बेहतरी की ख्वाहिश रखने वाले मोदी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं । देश के नये प्रधानमंत्री से लोगों ने काफ़ी उम्मीदे लगाई हुई हैं वहीं देश की महिलाएं भी उम्मीद कर रही हैं कि मोदी सरकार उनकी सुरक्षा व्यवस्था  के अलावा महिलाओं को  बराबर की भागीदारी दिलाने वाला महिला आरक्षण विधेयक को पारित कर पास करवाने की दिशा में ठोस कदम उठाएं । उल्लेखनीय है कि   पिछले 18 सालों से दूसरी सरकारें इस विधेयक को लाने के लिये प्रयास तो कर रही हैं मगर कुछ राजनीतिक दलों के दोहरे रवैये के कारण आज तक ये विधेयक अधर में लटका हुआ है ।

Tuesday, May 13, 2014

ऎग्जिट पोल पर विश्वास नहीं .....

अगर आज कोई मुझसे पूछे कि मैंने किस पार्टी को वोट दिया है तो मैं इस बात का खुलासा हर्गिज नहीं करूंगी कि मैंने किसे वोट दिया है ...इसलिये मैं नहीं समझती कि दूसरे लोग भी अपने वोट का खुलासा करने के हक में होंगे ...और यदि ऐसा है तो एग्जिट पोल के सर्वे विश्वास करने के काबिल नहीं हैं .............

Tuesday, May 6, 2014

अंधविश्वास के चक्कर में ना पडे़ं ..........

आजकल सोशल नेटवर्किंग साइट फ़ेसबुक के साथ - साथ मोबाइल एप्स के माध्यम से आने वाले मैसेजेस में एक अजीब रिवाज चल पडा़ है । जिसके तहत देवी - देवताओं की तस्वीर चस्पा कर उसमें लिखा जा रहा है कि इसे देखकर तुरत लाईक करो या इस मैसेज को  कम से कम 9 - 10  लोगों को भेजो । इससे तुम्हारे मन की मुराद पूरी होगी और यदि ऐसा नही किया तो तुम्हे कोई बुरी खबर मिलेगी या बदकिस्मत हो  जाओगे ।
बडे हैरत की बात है कि कुछ लोग ऐसी हरकतें करके अंधविश्वास फैलाने में लगे हैं और हम लोग बडी़ आसानी से उनके झांसे में आकर अपनी सूझबूझ खोकर ऐसी फोटोज को लाइक कर आगे भेज रहे हैं । ये भी नही सोचते कि क्या ऐसे मैसेजेस भेजने या लाइक करने से कभी किसी की मन्नत पूरी हुई है जो अब तुम्हारी होगी ? जबकि ऐसे मैसेजेस सिवाय उलझन ही पैदा करते हैं ।  साथ ही ये मैसेजेस टेंशन देने के अलावा अंधविशवास को भी फैलाते हैं ।
अत: फ़ेसबुक यूजर्स और मोबाइल यूजर्स सावधान रहें और बिना किसी डर के तथा अंधविश्सवास में पडे  ऐसे मैसेजेस को डिलीट करें । और भेजने वालों से गुजारिश है कि वे अजीबोगरीब हरकतें करना बंद करें और अपने कर्म पर ध्यान दें । क्योंकि आपके साथ अच्छा या बुरा जो भी होता है वो सब आपके कर्मो से ही तय होता है ।  ज्यादा कुछ नहीं तो दूसरे लोगों को शांति से जीने दें ।

Monday, May 5, 2014

३० मई को रिलीज़ हो रही है फिल्म बाबा रामसा पीर

  

३० मई को रिलीज़ हो रही है फिल्म “बाबा रामसा पीर’. राजस्थान के जाने माने संत ‘बाबा रामसा पीर’ की इस फिल्म का निर्माण किया है औशिम खेत्रपाल ने. जिन्होंने इस फिल्म से पहले  “शिरडी साईं बाबा”  नामक फिल्म बनाई थी. अभिनेता औशिम खेत्रपाल ऐतिहासिक फिल्म “बाबा रामसा पीर” में बाबा के चरित्र को अभिनीत कर रहे हैं. इस फिल्म से पहले इन्होने फिल्म ‘शिरडी साईं बाबा’ में भी अभिनय किया था.    
१४ शताब्दी में एक संत थे जिनका नाम रामसा था जिन्होंने सबसे पहले हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश फैलाया जिन्हें हिंदू बाबा और मुसलमान पीर कहते थे और दोनों ही इनकी पूजा करते थे. यह नाम बाबा को फारस के इनके ५ साथियों ने ही दिया था जो की उस समय भारत आये थे. इन्हीं “बाबा रामसा पीर” की कहानी पर आधारित है यह फिल्म, जिसका निर्माण हुआ है सतीश टंडन  प्रोडक्शन एंड ओरिएंट ट्रेडलिंक लिमिटेड के बैनर में.           
 इस फिल्म में अभिनय किया है साईं भक्त के रूप में विश्व में प्रसिद्ध औशिम खेत्रपाल और अभिनेत्री ग्रेसी सिंह ने. फिल्म की शूटिंग हुई है मुंबई, जोधपुर, जयपुर और रोंचा गाँव जहाँ पर बाबा रामसा की समाधि है. यह फिल्म राजस्थानी और हिंदी आदि दो भाषाओ में बनी है. इस फिल्म में हिंदी, राजस्थानी भाषा के साथ-साथ गुजराती भाषा में भी मधुर गीत संगीत है जो कि निश्चित रूप से श्रोताओ  को पंसद आएगा.