लघुकथा .........
बेवसी
--- डॉ शशि सिंघल --
नैना आज बहुत गुस्से में थी । एक निवाला तो दूर एक घूँट पानी भी उसके गले से नीचे नहीं उतर रहा था । वजह हर बार की तरह माँ की वही बेवसी , लाचारी और मजबूरी भरी मनुहार ।
बेटी नैना , “घर के हालात तुमसे छिपे नहीं है । तुम्हारे पापा का काम बंद है । तनाव के कारण उनकी तबियत भी ठीक नहीं रहती । कुछ कामधाम है नहीं , ऊपर से डॉक्टरों के यहाँ के चक्कर और दवाईयों में दुनियाभर का पैसा खर्च हो जाता है । घर में खाने के लाले पड़े हैं । उधर रिया की डॉक्टरी की पढ़ाई का खर्चा भी कोई कम नही है। कहाँ से लाऊँ , क्या करूँ ? अब तो बर्तन - भांडे भी नहीं रहे जिन्हें बेचकर घर का गुजारा हो सके ।" एक ही साँस में माँ इतना कुछ कह गयी ।
नैना समझ गयी माँ की इस बदहवासी का कारण । जरूर रिया की चिट्ठी आई होगी और उसने की होगी पैसे की डिमांड । इतनी परेशान क्यों हो माँ (सबकुछ जानते हुए भी )रिया ने पूछा ?
वोsssवोsss रिया ..मैंने तुमसे वादा किया था कि इस बार बुनाई के आने वाले रुपयों में से तुम्हारी फीस के लिए दे दूँगी , लेकिन इस बार तुम्हारी फीस भरपाना संभव नहीं हो पा रहा है। वो मैं कह रही थी कि तुम अब से एक घंटा और ज्यादा बुनाई का काम कर लो तो सच कहती हूं ,उससे आने वाले पैसों से अवश्य ही तुम्हारी फीस भर दूँगी ।
माँ के ये शब्द नैना को गहरे तक चुभ गये । ऐसा नहीं पहले नहीं चुभे लेकिन पहले माँ की मजबूरी मानकर चुप रह जाती और पहले से ज्यादा मेहनत करने लग जाती थी। खैर कोई प्रत्युत्तर दिए नैना वहाँ से चली गयी ।
माँ पढ़ी - लिखी नहीं थी मगर वह अपने बच्चों को पढ़ा - लिखाकर कामयाब इंसान बनते देखना चाहती थी । यही वजह है कि तमाम मुश्किलों के बाद भी माँ ने अपनी बड़ी बिटिया रिया को मेडीकल की पढ़ाई करवाई । माँ ऐसा सोचती थी कि घर में बड़ा बच्चा पढ़ लिख जाएगा तो उसके पीछे - पीछे दूसरे बच्चे भी लायक बन जाएंगे । अपनी इसी सोच के चलते माँ ने अपना सारा ध्यान रिया पर केंद्रित कर दिया था ।
घर में पैसे की तंगी से जूझने के लिए माँ स्वेटर बुनने की मशीन ले आई थी । नैना ने घर में रहकर काम करने में माँ का पूरा हाथ बंटाया । नैना मशीन से स्वेटर बनाती और माँ दुकानदार से माल व रुपयों का लेन - देन करती थी ।
इधर धीरे - धीरे नैना ने पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया । अब उसे पीएचडी में रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए फीस जमा करवानी थी । इसके लिए उसने जब अपनी इच्छा माँ के सामने जाहिर की तब माँ ने ही तरकीब सुझाई थी कि अगर वह प्रतिदिन दस स्वेटर बनाती है तो उसकी जगह बारह स्वेटर बनाने शुरू कर दे । मतलब प्रतिदिन वह रोजाना से एक घंटा ज्यादा काम कर ले तो इससे आने वाले अतिरिक्त रुपयों से उसकी फीस आसानी से जमा हो जाएगी ।
परिस्थितिवश नैना ने माँ का सुझाव मान लिया । पीएचडी करने की ललक में जी - तोड़ मेहनत करने लगी । मगर नतीजा वही “ढाक के तीन पात " रहा ।
क्योंकि जब भी मेहनताना आता तभी माँ के सामने रिया का कोई ना कोई खर्चा खड़ा हो जाता । इसका हर्जाना भुगतना पड़ता नैना को जिसके लिए उसकी फीस अगले टाइम के लिए टाल दी जाती । ये सिलसिला पिछले तीन माह से चल रहा था ।
जो नहीं होना चाहिए था एक बार फिर वही हुआ । आज भी माँ अपनी मजबूरी का रोना लेकर बैठ गयी ।
लेकिन आज नैना कुछ भी सुनने - समझने को तैयार ना थी । उसे रह रह कर एक ही बात परेशान कर रही थी कि माँ को रिया ही रिया दिखती है मैं क्यों नहीं ? आखिर ऐसा क्या है रिया में ? मैं भी तो उन्हीं की बेटी हूँ फिर मुझसे प्यार क्यूँ नहीं ? आखिर माँ मेरे जज्बात क्यूँ नहीं समझती ?
वक्त , हालात और मजबूरी के आगे बेवस नैना माँ का विरोध तो नहीं कर पाई । बस गुस्से से आग बबूला हो पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गयी । अब आगे वह क्या करे क्या ना करे यही सब सोचती रही और घंटों अपनी बेवसी पर आँसू बहाती रही
डॉ. शशि सिंघल
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ई मेल -- drshashisinghal@ yahoo.com
6 comments:
बधाई ।
बहुत मार्मिक है लघु कथा बेबसी। लाखों आम भारतीय परिवारों में हर रोज बेबसी के ऐसे ही हालात होते हैं। बेबस नैना ही नहीं उसकी मां भी है। मां के लिए तो हर बच्चा कलेजे का टुकड़ा होता है।
Thanks pradeep ji
Thanks ji
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