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वीं लोकसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित जीत एवम प्रचण्ड बहुमत हासिल कर
भाजपा एवं राजद के नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानमंत्री का पदभार संभाल
लिया है । मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही देश - दुनिया की नजरें उन
पर टिक गई हैं । जनता की अपेक्षाएं भी
बेइंतहा बढ़ गई हैं । इससे अपार जनसमर्थन प्राप्त मोदी सरकार के समक्ष देश
की बागडोर संभालते ही चुनौतियों के पहाड़ खडे़ हो गये हैं । जगजाहिर है कि
आज देश विभिन्न समस्याओं रूपी ज्वालामुखी के ढेर पर बैठा है , हालात
बेकाबू हो गये हैं । जिनसे जुझने के लिये मोदी सरकार को अपनी सूझबूझ की
रणनीति से ठोस कदम उठाने होंगे ।
यूं
तो चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक दलों ने अपने - अपने चुनावी घोषणा
पत्र में तमाम वायदे किये थे । भाजपा एवं राजद के नेतृत्व वाली मोदी सरकार
ने भी तमाम वादे किये हैं , उनमें से यहां हम बात करेंगे महिलाओं से जुडे़
वादों की -----
भाजपा ने अपने पत्र में महिलाओं की
सुरक्षा और
कल्याण के साथ - साथ संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का कानून बनाए जाने पर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है ।
अब देखना यह है कि जिस महिला आरक्षण बिल [ नारी सशक्तीकरण का प्रतीक ] को
पारित कर अमल में लाने का प्रयास पिछले 17 सालों से चल रहा है , पिछली
यूपीए सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद किन्हीं राजनीतिक दलों के विरोध और
दांवपेचों के चलते
लोकसभा में पारित नहीं कर पाई ,उसे मोदी सरकार कितने समय में पारित करवा
पायेगी ।ऎसा करके वह महिलाओं कि उम्मीदों पर खरा उतर पायेगी या नहीं ।
क्या है महिला आरक्षण विधेयक -----
आजादी
के बाद महिलाओं की
बेहतरी और सत्ता में उन्हें हिस्सा देने की गरज से पिछले 18 वर्षों से
संविधान के 108 वें महिला सशोधन विधेयक को लाने का प्रयास किया गया है। इस
बिल के लागू होने से भारतीय राजनीति पटल का दृश्य ही बदल जायेगा क्योंकि
इसके तहत भारतीय संसद में महिलाओं की भागीदारी 33 प्रतिशत आरक्षित हो
जायेगी । फ़लस्वरूप भारतीय संसद में 248 और राज्य विधानसभाओं में 1223
महिलाएं आ जाएंगी , जिससे पुरुषों का
वर्चस्व खत्म हो जायेगा । 543 सदस्यों वाली लोक्सभा में अभी तक महिला
सांसदों की संख्या 61 से ऊपर नहीं पहुंची है तो राज्य विधानसभाओं में भी
हालात कुछ अच्छे नहीं , यहां भी 4072 विधानसभाओं में महिला सदस्यों का
आंकडा़ 300 तक ही पहुंच पाया है । जाहिर है इस बिल के आने से पुरुषों की
संख्या सीमित हो जायेगी और महिलाओं की संख्या बढ़ जायेगी ।
देश
की पहली लोकसभा में महिला सांसदों का प्रतिशत महज चार फ़ीसदी थी और आज भी
यह आंकडा़ कुछ खास आगे नहीं बढा़ है । हाल ही में गठित 16वीं लोकसभा में भी
मात्र 61 महिलाएं [अब तक की सबसे ज्यादा संख्या ] चुनकर आई हैं जो मात्र
11 फ़ीसदी ही हैं । अत: यह तय है कि इस विधेयक के लागू होने से भारतीय संसद
में महिलाओं की संख्या बढ़ने
से कोई नहीं
रोक पायेगा ।
संसदीय व्यवस्था में महिलाएं----
देखा
जाए तो भारत ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी
महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है । विश्व की आधी
आबादी होने के बावजूद समूची संसदीय प्रणाली में महिलाओं
की भागीदारी सिर्फ़ 18.4 ही फ़ीसदी है ।
जबकि दुनिया में संसदीय प्रणाली वाले देशों की संख्या 187 है । इनमें से
केवल 63 में द्विसदनीय व्यवस्था है , इनमें से भी महज 32 देशों में ही
महिलाओं को वहां की संसद या उसके किसी सदन का अध्यक्ष बनने का अधिकार मिल
सका है । इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन के मुताबिक 30 अप्रैल 2009 तक के
आंकडो़ के अनुसार संसदीय व्यवस्था वाले देशों में सांसदों की कुल संख्या 44
हजार 113 थी ,इनमें महिला
सांसदों की संख्या महज 8 हजार 112 थी । कुलमिलाकर देखा जाए तो महिलाओं की
दयनीय तस्वीर ही सामने आती है । दुनिया की एक चौथाई संसदों में तो महिलाओं
की संख्या नगण्य है । सऊदी अरब में तो महिलाओं को वोट डालने का भी अधिकार
नहीं है ।
लोकतंत्र
के सबसे बडे़
पैरोकार और
मानवाधिकारों का
ठेकेदार बनने वाले अमेरिका में कांग्रेस के दोनों सदनों - सीनेट और
प्रतिनिधि सभा में सर्वाधिक 17.17 महिला सांसद ही चुनी गई । संसद में
महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के
मामले में भारत दुनिया में 134वें स्थान पर है।
देश मे आधी आबादी (महिलाएं) पिछले एक दशक से अपना प्रतिनिधित्व बढाने की मांग कर
रही हैं लेकिन पुरूष प्रधान राजनीति संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होने
दे रही। अधिकांश पुरूष सांसद महिला सशक्तिकरण की बात जरूर करते हैं, पर
समाज की "आधी आबादी" के लिए त्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस मुद्दे पर
राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में अंतर दिखता है।
महिला आरक्षण की आवश्यकता ------
महिलाओं के उत्थान के लिए यह विधेयक आवश्यक है। लेकिन
इसमें भी
संशय है कि यह सिर्फ आम बिल बनकर रह जाए या महिलाओं को हक दिलाने में कारगर भी
होगा।फ़िर भी इस बिल के पेश होने के बाद उम्मीद है कि महिलाएं आत्मविश्वास के साथ अपने
हक की मांग करें। अपने अधिकारों को कानूनी रूप से प्राप्त करने के लिए वे स्वयं आगे
आएं। कितने आश्चर्य की बात है कि इतने चुनावों के बाद भी महिलाओं की सत्ता में
भागीदारी नगण्य है ।
स्त्री
जब भी अपने अधिकार के लिए आगे आती है, तो उसे वह स्थान
नहीं मिलता। वह चाहे राजनीतिक पार्टियों के टिकटों के बंटवारे का मामला हो
या फिर
नौकरी में आरक्षण का। किसी महिला को महत्वपूर्ण जगह मिल भी गई, तो उसे
पुरुषवादी
मानसिकता का चतुर्दिक सामना करना पड़ता है। उसे उसी पद्धति के भीतर रहना
पड़ता है। वह
अपनी आवाज उठाती है, तो उसे महत्वपर्ण जगह से हटा दिया जाता है। किरण बेदी
के साथ
भी तो यही हुआ। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक समाज के नजरिये में फर्क
नहीं
आएगा। समाज का मौजूदा नजरिया तो स्त्रियों को बर्दाश्त न करने वाला है।
समाज की मानसिकता बदलने की जरूरत है। समाज को बदलने की पहल भी
महिलाओं को ही करनी होगी। महिलाओं को शिक्षित होना पड़ेगा।
कानून हमारे यहां हैं, लेकिन उनकी परिणति
क्या होती है? बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की एफआईआर तक को प्राथमिकता नहीं दी जाती।
सच कहें, तो स्त्री को अधिकार मिलने में कानून, कागज और कार्रवाई के बीच बड़े अंतराल
हैं। इन अंतरालों को हमें पाटना पड़ेगा। कोई कानून तभी प्रभावी होता है, जब सदिच्छा
से उसे लागू किया जाए।
लबे समय से बहस में अटका है ये बिल -------
इस
बात का खेद है कि पुरुष दोहरी मानसिकता के शिकार आज भी हैं । जिसके कारण
महिलाओं के लिये विधायिका में 33 प्रतिशत स्थान
आरक्षित करने का मुद्दा महज ख्यालों
में ही
अटक गया है । विभिन्न राजनीतिक दलों में ही इसे लेकर जबर्दस्त अंतर्विरोध
है । इसके समर्थन और विरोध में अलग - अलग तर्क हैं । समर्थकों का मानना है
कि विधायिका में महिलाओं का आरक्षण होने से देश की राजनीति में महिलाओं की
संख्या बढे़गी तथा सामाजिक समर्थन का सपना भी साकार हो जायेगा । जबकि
विरोधियों का मानना है कि इसके स्वरूप से सिर्फ़ उच्च वर्ग की महिलाओं को ही
फ़ायदा पहुंचेगा ।
इसलिये ये लोग आरक्षण के भीतर अलग कोटे की मांग कर रहे हैं । जदयू अध्यक्ष
शरद यादव , समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और राजद अध्यक्ष
लालू प्रसाद यादव आरक्षण के मौजूदा स्वरूप के हक में नहीं हैं । यही नहीं
वर्तमान में भाजपा से सांसद चुनकर आई उमा भारतीभी आरक्षण के इस स्वरूप के
विरोध में थीं , अब उनका रुख क्या होगा यह देखना महत्पूर्ण है ।
यह
बिल, जो कि
देश के
चौथे प्रधानमंत्री राजीव गांधी का स्वप्न था , संसद में पहली बार 12
सितंबर 1996 को एच डी देवगौडा़ सरकार के समय लोकसभा में पेश किया गया ।
लेकिन उस वक्त भी इसके पक्ष - विपक्ष में बेहद शोर - शराबा हुआ और विधेयक
अधर में लटक गया । इसके बाद अटल बिहारी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय
लोकतांत्रिक गठबंधन [ एनडीए ] सरकार द्वारा 1998 में दोबारा पेश किया गया
लेकिन 12 वीं लोकसभा के भंग होने से यह बिल
फ़िर अटक गया । राजनैतिक दलों में आम सहमति न होने के कारण 23दिसंबर 1999
को तीसरी बार पेश किया गया यह बिल फ़िर पारित न हो सका । बार - बार पटरी से
उतरता हुआ यह बिल किसी टेडी़ खीर से कम नहीं लगने लगा । तत्पश्चात डा.
मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन [ यूपीए ] सरकार जब 2004 में
सत्ता में आई तो उसने इस विधेयक को न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा बनाया
और 2008 में यह विधेयक प्रस्तुत
किया । लेकिन इस बार भी आरक्षण को लेकर राजनीतिक खेल खेले ।
ऎतिहासिक फैसला ---------
आखिरकार
14 साल की लम्बी जद्दोजहद के बाद आरक्षण बिल मार्च 2010 में राज्यसभा में
लाया गया और भारी मतभेदों व ना - नुकुर के चलते यह पास हो गया । इस तरह
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जुड़ गया और महिलाओं के
हक में एक नई क्रांति की शुरुआत हुई।
विधेयक के रास्ते
में बाधाएं --------
केंद्र सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक
राज्यसभा में पास करवाकर अवश्य ही अपने इरादे जता दिये हैं । सरकार की इस
जीत के लिये सत्ता के साथ साथ विपक्षी दल भी बराबर के हकदार है ।किंतु आम
सहमति ना बन पाने के कारण सरकार इसे लोकसभा के पटल पर नहीं रख पाई ।
वर्तमान राजनीतिक समीकरण में रोचक तथ्य यह है कि संप्रग के समर्थन में राजग प्रमुख
भाजपा अपना समर्थन लिए खड़ी है। वामदल भी आरक्षण विधेयक के समर्थक हैं। राजद,
द्रमुक, पीएमके दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहता है।
सपा भी कोटे में कोटे की पक्षधर है। इस विधेयक के रास्ते में कई तकनीकी परेशानियाँ
हैं क्योंकि यह संविधान में संशोधन करने वाला विधेयक है. ग्यारहवीं लोकसभा में पहली
बार विधेयक पेश हुआ था तो उस समय उसकी प्रतियां फाड़ी गई थीं. इसके बाद 13वीं लोकसभा
में भी तीन बार विधेयक पेश करने का प्रयास हुआ, लेकिन हर बार हंगामे और विरोध के
कारण ये पेश नहीं हो सका था. महिला आरक्षण विधेयक एक संविधान संशोधन विधेयक है और
इसलिए इसे दो तिहाई बहुमत से पारित किया जाना ज़रूरी है.
नई गठित मोदी सरकार पर उम्मीदें टिकीं --------
नरेन्द्र
मोदी की छवि एक आक्रामक नेता के रूप में रही है । हरेक नागरिक की बेहतरी
की ख्वाहिश रखने वाले मोदी सबको साथ
लेकर चलने में विश्वास रखते हैं । देश के नये प्रधानमंत्री से लोगों ने
काफ़ी उम्मीदे लगाई हुई हैं वहीं देश की महिलाएं भी उम्मीद कर रही हैं कि
मोदी सरकार उनकी सुरक्षा व्यवस्था के अलावा महिलाओं को बराबर की भागीदारी
दिलाने वाला महिला आरक्षण विधेयक को पारित कर पास करवाने की दिशा में ठोस
कदम उठाएं । उल्लेखनीय है कि पिछले 18 सालों से दूसरी सरकारें इस विधेयक
को लाने के
लिये प्रयास तो कर रही हैं मगर कुछ राजनीतिक दलों के दोहरे रवैये के कारण
आज तक ये विधेयक अधर में लटका हुआ है ।